वो भोर की खौफनाक दौड़ (भाग: 2)

भाग: 2 (हमारी दिनचर्या़ और योजना)

हमारा दौड़ और व्यायाम का क्रम चलते चलते-चलते करीब एक माह निकल गया। इसी दौरान एक षाम वर्शा हो गई और अब कहानी का ट्वीस्ट यहाॅं से चालू होता है।
मैं अगली सुबह के लिये भोजन कर के सो गया। अब सुबह रोज जल्दी जगने के चलते नींद अपने आप ही खुल जाती थी। लेकिन आज की सुबह कुछ अलग ही हुआ।
अब अगली सुबह दौड़ जाने के लिये मैं बिस्तर से उठा और घड़ी देखी जो मुझे पिताजी ने दी थी और हड़बड़ा कर बिस्तर छोड़ कर उठा और बहुत फूर्ती के साथ तैयार होने लगा, क्योंकि मेरी घड़ी करीब 5ः20 का समय दिखा रही थी और घड़ी के हिसाब से मैं करीब सवा घंटा लेट हो चुका था। मैंने एकदम हड़बड़ी में तैयार हो के अपनी साइकिल निकाली और तेजी से मंूगा के घर पहुॅंचा। बीती षाम बारिष होने के चलते आसमान भी साफ नहीं था। उसके दरवाजे पर पहुॅंच कर उसको आवाज लगाई। जबकि वो मेरे वहाॅं पहॅंचने से पहले तैयार होकर मेरा इंतजार करता था।
लेकिन आज करीब 10 मिनट चिल्लाने के बाद मूंगा आॅंखें मलता हुआ बाहर निकला और बोला- आबे यार आज बड़ी जल्दी सवेरा हो गया।
मैं- आबे साले साढ़े पाॅंच-छः बजने वाले हैं। ये ले घड़ी देख।
उसने घड़ी देखी और देखते ही चैंक गया।
मूॅंगा- हाॅं यार भाई ये तो सही में साढ़े पाॅंच हो गये।
घड़ी देखने के बाद उसने भी कुछ नहीं सोचा और दौड़ता हुआ अंदर गया और आनन-फानन में तैयार हो के बाहर निकला अपनी साइकिल उठाई और हम दोनों अपनी दौड़ स्थान पर पहुॅंच गये।
फिर हमने वहाॅं रोज की तरह साईकिल लगाई और दौड़ के लिये तैयार हो गये।

लेकिन आज की सुबह रोज की सुबह से कुछ अलग लग रही थी और ये बात हम दोनों में से कोई नोटिस नहीं कर रहा था और वो बात ये थी कि आज इस सड़क में कोई नजर नहीं आ रहा था, आज सड़क एकदम सुनसान लग रही थी, जबकि हमारे यहाॅं पहुॅंचने तक इस सड़क पर ज्यादा नहीं फिर भी हल्की-फुल्की सी ही लोगों की टहल-कदमी चालू रहती थी, और हमारे दिमाग में तो बस एक बात फिट थी कि आज हम काफी लेट हो गये हैं और हमारे कसरत का समय निकलता जा रहा है।
चुॅंकि मौसम षाम से ही कुछ खराब था, बारिष भी हो गई थी इसलिये हमें लग रहा था कि मौसम खराब होने की वजह से आज आदमी नहीं दिख रहे।
और बस हम अपने दिमाग में ये सारा गुणा-गणित करने के बाद अपने रोज वाले रास्ते पर दौड़ने निकल पड़े।

अब जहाॅं से हमारी दौड़ चालू होती थी वहाॅं से करीब एक कि0मी0 की दूरी पर इमली का एक बहुत विषाल और घना वृक्ष था, जिसमें पीपल और बरगद के पेड़ भी उगे हुए थे। हमने आज तक इस बात पर कभी भी गौर नहीं किया था कि यहाॅं इस तरह का कोई घना वृक्ष भी है। जबकि हम प्रति दिन उसी रास्ते से आना-जाना करते थे।
चुॅंकि हमारा वही एकलौता रास्ता था तो अब हम दौड़ते-दौड़ते उस पेड़ के नजदीक पहुॅंचे। मैं मूॅंगा से कुछ आगे था करीब बीस से तीस मीटर आगे। वो अपने जूतों की लैस बाॅंधने के लिये रूका मैं तब तक धीरे-धीरे दौड़ता रहा।

क्रमशः निरंतर (भागः 3 में पढ़िये) वो भोर की खौफनाक दौड़ (भाग-3) – LekhVani.com

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