समझ गया मैं

प्रस्तुत कविता दर्षा रही है कि हम कुछ बहुत बड़ा करने की चाहत में छोटे संभावित आधारों को नजर अंदाज़ करते जाते हैं, जिसका परिणाम होता है कि उस बड़ा पाने के कयास में एक बहुत बड़ा और कीमती समय न जाने कब हमारे हाथ से निकल जाता है।

बीत रहे हर पल को पकड़ो
समयचक्र जो घूम रहा है
आओ उसमें कल को जकड़ो
बीत रहे हर पल को पकड़ो

जिंदगी के थपेड़ों से
जीवन की लथाड़ों तक
मैं जहाॅं घूम आया देखो
समतल से पहाड़ों तक

चला डाल छोड़ मैं
सागर में पंख फैलाने
ज्ञान नहीं था सागर का
गर्वान्वित मन को मनाने

बड़े सोच की ठान रखी थी
तनातनी थी दोनों ओर
विफलता ने भी टान रखी थी
टूट रही थी बल की डोर

बड़े सोच ने छोटों पर
जो लात दबा के मारी
छोटे करतब बोले मिलके
हम भी हैं सब पर भारी

वक्त की गहराइयों ने
जब मरोड़ा मेरा कान
भूल गया इतराना खूद पे
धुमिल हो गया खड़ा गुमान

अटटहास जब किया समय ने
उपहास तब मन में आया
थरथर काॅंपने लगी आत्मा
कुछ खोया पर क्या पाया

पड़ी सामने गजब स्थिती
मन को लगी जो भाॅंपने
विकराल सा काल दिखा ये
सर्प मुखी सा झाॅंकने

एक भिन्न सी कला थी मेरी
जग में ऐसा नाच गई
भू मंडल के कोने-कोने
अमिट निषान को छाप गई

कालचक्र तो घूम रहा था
मानचित्र पर अपने
अपनेपन का ख्वाब सजा था
टूटते दिखे अब सपने

ज्ञात हुआ अब, मात हुई जब
बड़े लोभ को छोड़ो
छोटे-छोटे मिला के सपने
बड़ी राह तुम मोड़ो

समय नहीं तो निकल चलेगा
हाथ लगेगा ठुल्लू
बड़े-बडे़ की सोच को पाले
बन जायेंगे उल्लू

काल को पकड़ो, लघू दम्भ से
बड़ा स्वयं बन जायेगा
काल गया तो हाथ मलोगे
कुछ भी हाथ न आयेगा

बीत रहे हर पल को पकड़ो
समयचक्र जो घूम रहा है
आओ उसमें कल को जकड़ो
बीत रहे हर पल को पकड़ो

X~ समझ गया मैं ~X

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