ये कहॉं आ गये हम !?

आईये आपको भी बिसरी हुयी यादों के एक सुनहरे सफर पर ले चलते हैं।

बर्बस ही गाॅंव और बचपन की कुछ तस्विरें दिलो-दिमाग में झलकने लगीं। मुझे लगा कि इसको कलमबद्ध कर यादों को संजोया जा सकता है।
इसलिये लिख दिया।
पिताजी नौकरी करते थे इसलिये बचपन बाहर ही बीता। कक्षाओं में पढ़ते-पढ़ते केवल वार्शिक परिक्षा का इंतजार रहता था, कि कब परिक्षा खत्म हो और कब हम एसी या डीसी वाली रेलगाड़ी से गर्मियों की छुट्टियाॅं मनाने गाॅंव पहुॅंच जायें, जिसमें पिताजी द्वारा बाबा-मैया को पत्र के माध्यम से पहले ही आने की तारीख बता देते थे।
याद आता है कि रेलगाड़ी से उतरने के बाद हम कैसे बिना पक्के सड़क के कोसों बैल-गाड़ी से या पैदल चल के गाॅंव पहुॅचते थे जहाॅं बाबा-मैया आॅंखों में खुषी के आॅंसू लिये एक-एक दिन एक-एक घड़ी हमारे आने की राह ताकते रहते थे।

मुझे याद आता है-
बाबा का भोर सुबह लगभग तीन बजे से प्रारंभ हो जाया करता था। नित्यकर्म के बाद गौ माताओं को लेहना देकर बड़े प्यार से मुझे जगाते थे और कहते थे
‘‘चलो बबुआ गोरस निकालने का समय हो गया है’’ और मैं झटपट कुल्ला कर के गाय का एक लोटा ताजा दूध गटक जाता था। फिर दिन का आरंभ रेडियो द्वारा भोर में बजने वाले आकाशवाणी के रामायण से होता था, फिर दुपहरिया में आकाशवाणी वाले साहेबान लोकगीत के साथ फौजी जवानों और किसानों के लिये रंगारंग कार्यक्रम लेकर आते थे, और संझवत की बेरा में रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए कार्यक्रम बाबा लोग सुन लिया करते थे। कभी-कभी तो रेडियो पर सुनाई देने वाले कार्यक्रम में कुछ टॉपिक ऐसे आ जाया करते थे कि बाबा और पुरनिया लोग के बीच उस पर घंटों तक चर्चा और बहस होती रहती थी। फिर जब दिन का उजाला अन्हरिया में बदलने लगता था तब दुआर पे या खुले खरिहाना में कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो। और अंत में बाबा के पास बजता रेडियो आकाशवाणी के समाचारों के साथ दिन रुख़सत लेता था।

रातें बड़ी होती थीं, क्योंकि भोजन का कार्यक्रम कीरिन डूबने से पहले षुरू हो जाता था और अन्हरिया होने तक तो सब खा-पी खुला कोठा (छत) पर सोने की तैयारी में लग जाते।
सोने से पहिले बाबा, मैया, चाचा-बूआ, भैया-भौजी लोग की अपनी चौपाल लगती थी, जिसमें बात-बतकही, हॅंसी-ठिठोले बराबर सुनाई देती थी। और ये सब इसलिये हो पाता था क्योंकि उस समय मोबाइल बाबा नहीं थे।

उस समय हरी सब्जी-तरकारी के बारे में तो कुछ सोंचना ही नहीं था।
साॅंझ बेरा खेत पर जाकर मचान पर घंटों बैठे रहते और खेत से ताजा खीरा, ककड़ी, टमाटर आदि खाते रहते,
कभी तो खरिहाना में खेत से आलू कोड़ के पुअरा में पकाकर नमक के साथ खाने का जो मजा आता था उतना मजा आज के पिज्जा और बर्गर में नहीं मिलता। और जब कुछ अपच जैसा होता था तो खुले में जाने का भी आनंद ले लिया करते थे।
और तो और घर के कोठा और टाटी पर चढ़ा नेनुँआ कभी रसोई में तरकारी का दो-तीन महीने का इंतजाम कर देता था।
कभी खपरैल की छत पे चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी।
कभी बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी अदौरी, कोहड़ौरी, सावन भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी!
वो दिन थे,जब सब्जी पे खर्चा पता तक नहीं चलता था।
देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे लेकिन खिचड़ी आते-आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी।

तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था!

ये सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर घर की रसोई का हिस्सा बहुत ही आसानी से हो जाया करती थीं।
जब किसी के घर माटी के चूल्हे पर लोहे की कढ़ाई या माटी की हंडिया में, रसदार तरकारी पकती थी तो, गाँव के सीवान के डीह बाबा तक गमक चली जाती थी।

गवहा किसान लोगन में ना तो कर्ज लेने की बहुत ज्यादा जरूरत रहती थी और ना ही कर्ज लेने का फैशन था।

फिर बचवा-बचिया बड़े होने लगे।
बीच में निर्मुछिये-मूछमुंडे इंजीनियरों का दौर आ गया। हम भी उस मुछमुंडा रेस में शामिल हुये।
बचवा सरकारी नौकरी पाते ही, अंग्रेजी इत्तर लगाने लगते थे।

बचिया के बाबूजी सरकारी दामाद खोज के बचिया बियाह देते, जो बचिया के बाबूजी के लिये सरकारी दामाद नारायण स्वरूप दिखते।
अब बचिया कभी नइहर आती है तो पहले वाले बाबूजी को अब पा…पा… और डए…डी हो जाना पड़ता।

फिर धीरे-धीरे किसान क्रेडिट कार्ड डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया, इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब भी बन गई।
अब दीवाने किसान, अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने लगे।
बेटी गाँव से रुखसत हुई, पिताजी का कान पेरने वाला रेडियो, साजन की टाटा और एयरटेल स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका है।

अब आँगन में नेनुँआ का बिया छीटकर, मड़ई पे उसकी लत्तर चढ़ाने वाली बिटिया, पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटाॅन लगाने लगी और सब्जियाँ माॅल से कीनने लगीं।

बहुत पुरानी यादें ताजा हो गईं।
सच में उस समय सब्जी से लेकर सामान्य जीवन जीने के घरेलू खर्चे बहुत सीमित हुआ करते थे, जो सम्पन्न होता वो भी वही सब्जी खाता था न्यून पूॅंजी वाले का भी ठीक से काम चल जाता था।
आज सब्जी भी अपना क्लास बना चुकी है।

दही मट्ठा का तो भरमार था, पूरे गाॅंव भर में सबका काम चलता था।
मटर, गन्ना, गुड़ सबके लिए इफरात रहता था।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि, किसी के साथ आपसी मनमुटाव रहते हुए भी उसके प्रति मन में छल-प्रपंच नहीं रहता था, बल्कि सूक्ष्म ही सही पर प्रेम रहता था, और गाॅंव के किसी कोने में दिनटेलुआ को किसी की जरूरत होती तो पूरा गाॅंव एक साथ हो जाता था।

आज के जैसी छूद्र मानसिकता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती थी,
हाय रे ऊँची सोच, ये अत्यधिक ज्ञान, ये आधुनिकता, ये मोबाईल, ये कंप्युटर, ये इंटरनेट– हमें कहाँ तक ले आई!

आज हर आदमी एक दूसरे को लघू या दीर्घ शंका की निगाह से देख रहा है।

जरा सोचिये, विचार करिये और मंथन करिये कि क्या सचमुच हम विकसित ही हो रहे हैं
या
अपने बीते कल की छाती पर पैर रख के केवल एक काल्पनिक छलावे की ओर बढ़ते जा रहे हैं, जहॉं इंसान ही इंसनियत से कोसों दूर और उपेक्षित होता जा रहा है।

ज़रा बताईये
ये कहाॅं आ गये हमये कहाॅं आ गये हम…???

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