द्वारा प्रेरित तथा निर्देषित > नारायण दत्त दुबे (पूर्व प्राध्यापक)
लेखक > ओमकार पाण्डे्य
प्रस्तुत लेख बिहार के सासाराम मेें स्थित रोहतास दूर्ग पर आधारित है। इस से जुड़े प्रत्येक बातों अथवा रहस्यों को बारीकी से क्रमद्ध उजागर कर पाना लगभग असम्भव सा है।
फिर भी मैने साक्ष्यों के आधार पर यथा सामर्थ्य त्रुटि रहित सामग्री देने का प्रयास किया है, इसके बावजूद भी यदि इस लेख में पाठक को किसी भी प्रकार की त्रुटि मिलती है तो मैं उसके लिये करबद्ध क्षमा प्रार्थी हॅूं, साथ ही यह प्रार्थना करता हूॅं कि यदि इससे जुड़ि और भी जानकारी पाठक के पास उपलब्ध हो तो मार्गदर्षन कर कृतार्थ करने की कृपा करंे ।
सन् 2000 का एक दिन मेरे चक्षुओं तथा हृदय पिपासा की आतुुरता को तृप्त करने वाला वह दिन है जो आज भी मेरी यादों में ऐसे छुप के बैठा था जैसे कहीं गुम हो गया हो। मैने सोचा कि इसे अपनी लेखनी के माध्यम से बाहर निकाल कर सभी पाठकों से इसका कुछ परिचय करवा दूॅं , जिस दिन मुझे रोहतास में हरिष्चंद्र के पुत्र ‘रोहित’ के नाम पर रखा गया विख्यात ‘‘रोहतासगढ़’’ के विहंगावलोकन का संयोग प्राप्त हुआ।
अब विस्तृत जानकारी के लिए मेरा जिज्ञासु मन इन जर्जर हो रही इमारतों के बारे में जानने और लिखने के लिये व्याकुल और आबद्ध हो रहा था.
प्राकैतिहासिक कालीन यह भवन युग-युगातंर से उथल-पुथल, सामाजिक, राजनैतिक, प्रषासनिक थपेड़ों एवं प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए अपनी अस्मिता को संजोए हुए है। सुदृढ़ता, सुरक्षा एवं सामरिक महत्व से विख्यात यह किला अपने दामन में अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों तथा अतीत गाथाओं को छिपाए हुए है। दूर्ग का प्राकृतिक प्रहरी सोनभद्र है, जिसकी रेत गर्मी में आग की तपन देता है, वहीं बरसात में हाहाकार बाॅंधता जल प्रवाह जो कि पूरी सर्दियों तक बहता रहता है और यह अपने आप में एक अलग चुम्बकीय आकर्शण पैदा करता है। इस प्रकार इस दूर्ग की प्राकृतिक छटा दृश्टव्य होती है। चतुर्दिक फैली इसकी अनुपम हरियली किसी का मन मोहित करती है जिनमें फल व फूल के वृक्ष हैं। जगह-जगह पर कुछ प्राकृतिक टीले भी हैं जो समाधिश्ट तपस्वियों का स्मरण दिलाती है।
यह दूर्ग समुद्री तल से लगभग 1700 फिट की ऊॅंचाई पर है तथा यह पहाड़ी के कगार पर स्थित है। तीन दिषाओं पूरब, उत्तर और दक्षीण से यह सोनभद्र नदी से आद्र्रेश्टित है, तथा पष्चिम में यह कढ़ौतिया घाट के सटे हुए है। यहाॅं पहाड़ काट कर सोनभद्र की धारा को मोड़ने का प्रयास किया गया था जहाॅं आगामी पहाड़ काटने की निषानी देखी जा सकती है। कुछ प्राकृतिक अड़चनों के कारण यह कार्य अवरूद्ध हो गया। एक किंवदंती के अनुसार यहाॅं कटाई के दौरान खुन की धारा फूट निकली एवं क्षितिज में आवेग के कारण यह कार्य स्थगित करना पड़ा। अब भी इस स्थान पर पुर्ण ज्येश्ठ में भी स्वच्छ जल की धारा बहती रहती है जिसमें एक घड़ा जल हमेषा भरा रहता है। अर्थात रोहतास दूर्ग को प्रषासन ने द्विप् बनाने की मंषा बना रखी थी। आज भी ये स्थान 23 वर्ग मील की परिधी में अपनी पहचान अलग बनाए हुए हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक एवं भौतिकवादी सम्पदा की चकाचौंध से परे इस क्षेत्र की भोली-भाली जनता में सतयुगी बौद्धिक विचार धारा की झिलमिलाहट देखने को मिलती है। यहाॅं की जनता छल-प्रपंच एवं राजनैतिक दाॅंव-पेंच से अनभिज्ञ हैं। प्रदुशण की कहें तो यहाॅं की आबोहवा आज के परिवेष में भी बिल्कुल स्वच्छ और निर्मल है। यहाॅं के बासिंदों का रूप चित्रण एकदम सरल है। साॅंवला रंग, सुडौल व स्वस्थ षरीर, सामान्य कद-काठी जिनके षरीर पर घुटने तक धोती, कंधे पर अंगोछा, कुर्ते के स्थान पर एक रंगा, हाॅंथ में कंधे के नाप की लाठी और चमरौंधा वहीं औरतें साधारण साड़ी, ब्लाउज हाथ में रूपौढ़ी एवं पैर में चप्पल पहनती हैं। आतिथ्य सत्कार को ये अपना धर्म व किसी का सहयोग करना पुण्य फल दायी कर्म मानते हैं। यह कहना अतिष्योक्ति न होगी रोहित के पिता राजा हरिष्चंद्र की सत्यता का प्रभाव कुछ हद तक इनके अंदर आज भी जीवित है। यह तो हो गया दूर्ग के बाह्य परिवेष का चित्रांकन।
अब चलते हैं इसके निर्माण तथा निर्माणक के बारे में जानने के लिए। ये किसके हाॅंथों में कब तक रहा, कितने क्षेत्रफल में है तथा इससे जुड़ी अन्य बातें जो आपको रोमांचित कर देंगी। इसके बारे में जानकारी एकत्रित करने के लिए विरल समिक्षा, पूछ-ताछ, अभिलेखों, इतिहास और पुराण को आधार बनाया है।
निर्माण कार्यकाल> इस बिंदू पर इतिहास एवं पुराणों के आधार पर अनुमान है कि यह दूर्ग रामावतार के बाद बना होता तो कहीं न कहीं राम या हनुमान की प्रतिमा अवष्य ही मिलती, किंतु यहाॅं आदि देव षंकर पार्वती व गणेष का ही मंदिर उपलब्ध है। वहीं दूसरी दलील यह भी दी जा सकती है कि भगवान षंकर अनार्यों के देव थे अतः यह अनार्यों का बनाया हुआ है, किंतु यह दलील ही तक सीमित है क्योंकि अनार्य कला कौषल में इतने प्रवीण कभी नहीं रहे थे।
तीसरा आधार यह भी है कि लाल बलुआ पत्थर साहूल के स्तर पर जोड़े गये हैं, जो कलयुगी क्षमता से बाहर था तथा इस युग में 19वीं षताब्दी के पहले मषीन का भी अविश्कार नहीं हुआ था।
राम का अवतार हरिष्चंद्र के 39वीं पीढ़ी में हुआ था अतः दूर्ग का निर्माण सम्भवतः रोहित ने ही करवाया था, जिसका उल्लेख मत्सय पुराण में भी मिलता है। अनुमानतः यह सिद्ध होता है कि अयोध्या का राज्य हरिष्चंद्र को दान कर दिया था अतएव अपने कलंक को धोने के लिये मुनि विष्वामित्र ने अपने पितृ राज्य में रोहित को ठहरने का स्थान दिया। पहाड़ों की तलहटी में नवहट्टा के समीप विष्वामित्र स्थान है जहाॅं उनके पिता राजा गाधि रहते थे, तथा कौड़ियारी खोह में काक ऋशि का आश्रम है। षिव मंदिर > दूर्ग से 2 कि.मी. पूर्व के अंतिम कगार पर एक षिव मंदिर है जो चैरासन नाम से विख्यात है। इसमें 84 सीढ़ियाॅं हैं। यह मंदिर 108 षिला कमलों से निर्मित है, इसका अद्वितीय कार्य आज के वैज्ञानिक युग के अभियंताओं को सोचने पर विवष कर देगा।
इसके अलावा दूर्ग में एक लंबी सुरंग है जिसका मुख्य द्वार बंद है। स्थानिय लोगों का कहना है कि यह सुरंग बहुत दूर तक गई है। यहाॅं अषोक के षिलालेखों के अतिरिक्त विदेषी पर्यटकों द्वारा भी कथित वृतांत षिलालेखों पर अभिलिखित हैं।
मंडुआ के निकट मांडेष्वरी देवी मंदिर और अषोक के षिलालेख से यह ज्ञात होता है कि 635.ई0 मंे रोहतास का राजा उदयसेन था।
उराॅंव जाति के लोगों का मानना है कि यह किला अनेकों वंषजों का रह चुका है। कर्मा त्योहार के अवसर पर लुम्बिनी नामक दासी ने परमार्थ को न्योता देकर उराॅंव के लोगों का आतिथ्य स्वीकार करवाया था। इस दासी के धोखे के कारण यह किला परमार्थ के हाथों में भी रह चुका था।
कुछ समाज षास्त्रियों के अनुसार यह भी उल्लेखनीय है कि रोहित ने आदिवासी कन्या से विवाह किया था। इसका प्रमाण यहाॅं के निवासियों से मिलता है जो आज भी अपने आप को सूर्यवंषी मानते हैं।
माॅं ताराचंडी में कुछ अषोक षिलालेख पर उल्लेखित पाया गया है कि 1812. ई0 में प्रताप धवल नाम के भी किसी षासक ने रोहतास पर षासन किया है।
कुछ उल्लेखों द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि कभी यह दूर्ग चंद्रभान नामक ब्राह्मण राजा के हाथों में भी रह चुका है, जिसने अपने परिवार के नाम पर तीन तालाब बनवाये थे। आज भी ‘वामन तालाब’ नाम का गाॅंव किले के पास मौजूद है। इसके पास एक टीला भी है जिसे ‘ब्रह्मदेव स्थान’ कहते हैं। सम्भवतः यहाॅं किसी ब्राह्मण की असामयिक मृत्यू हुई थी।
कुछ इतिहासकारों द्वारा यह अनुमान लगाया गया है कि 1539.ई0 में शरण लेने आया था, लेकिन वहॉं कुछ दिनों रहने के बाद धोके से उसने किले पर अपना कब्जा कर लिया, साथ ही कुछ इतिहासकारों द्वारा यह भी बताया गया है कि शेरशाह ने मुग़लों से युद्ध में यह किला जीता था, और कई वर्षो तक किले पर शासन करने के साथ यहीं पर उसकी आकस्मिक मृत्यु हुई, जिसकी वजह से उसका मकबरा बनवाया गया जिसे आज ‘शेरशाह के मकबरे’ के नाम से भी जाना जाता है, अर्थात कुछ समय के लिये यह किला मुसलमान षासकों के भी पास रहा है।
1588.ई0 में बंगाल-बिहार के सुबेदार ने यहाॅं पर अपना निवास स्थान जमाया। जिसके भग्नावषेश आज भी रानी महल में उपलब्ध हैं।
कढ़़ौतिया घाट में प्राप्त षिलालेख के अनुसार राजा मानसिंह के मरणोपरांत इस किले की देखरेख एवं मरम्मत उनके पुरोहित श्रीधर एवं गोपाल दास की दक्षता में हुई थी।
कुछ किंवदंति के अनुसार षाहजहाॅं उर्फ खुर्रैम का खजाना भी इसी किले में कहीं छाुपाया गया था।
औरंगजेब के ज़माने में यदि किसी को काला पानी जैसी सजा सुनाई जाती थी तो उसे इसी किले में ही रखा जाता था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार ये किला 18वीं षताब्दी में मीर कासिम के कब्जे में आ गया था, किंतु बक्सर की लड़ाई में अंग्रेजों से हारने के बाद ये किला ब्रिटिष हुकुमत के हाथों में चला गया। पुनः सियासी विद्रोह के समय यह किला स्वतंत्रता सेनानियों के लिये छिपने का स्थान और सुरक्षा गृह के काम भी आया।
लेकिन अंततः डग्लस ने स्वतंत्रता के बागियों को मारकर इस किले पर पुनः ब्रिटिष झंडा फहरा दिया था।
समय चक्र के साथ किले के हकदार, कब्जेदार और किले की स्थिती बदलती गई, किंतु जिस प्रथम षासक राजा ने इस दूर्ग का निर्माण कराया था वह सम्भवतः अति विषिश्ट योजनाकार एवं कुषल प्रषासक एवं सफल संचालक रहा होगा, जिसने किले के चारों ओर विषिश्ट सुरक्षात्मक दृश्टि को ध्यान में रखते हुये संतरियों और सैनिकों के लिये योजनाबद्ध पहरे और छावनीे की व्यवस्था बनाई हुई थी, ताकि षत्रुओं को किले पर चढ़ाई से पूर्व ही परास्त किया जा सके।
सुरक्षात्मक दृश्टि से इस किले की घेराबंदी प्रथम ढाई वर्ग मील की परिधी पर की गई है, तथा दूसरी एक मील की परिधी में की गई है। इस दूर्ग के चार मुख्य द्वार हैं जिन्हें घाट के नाम से जाना जाता है। इनमें कढ़ौतिया एवं घोड़ा घाट सर्वप्रमुख हैं, जहाॅं एक पूरी बटालियन को ठहरने के लिये प्र्याप्त स्थान एवं व्यवस्था दिखाई देती है। हर घाट पर षत्रुओं पर नजर रखने तथा उन्हें खदेड़ने के लिये समूचित व्यवस्था बनी हुई है। देखने से पता चलता है कि किले की दिवारी घेराबंदी अति सुदृढ़ है जिसमें आज भी इस दिवार के ऊपरी सतह की चैड़ाई बीस फुट के करीब स्पश्ट दिखाई देती है।
राजघाट के ठीक नीचे तलहटी में एक ‘‘बजरिया ख़़ास’’ नाम का पेड़ों की हरियाली भरा स्थान है, जो कि अब वन विभाग के अंतर्गत हो गया है। यहाॅं की जमीन समतल है और स्थानिय लोगों का कहना है कि यहाॅं कभी बाजार लगा करता था।
किले से सटे पष्चिम की तरफ एक ‘सावन सती’ नदी है। सावन में इस नदी में नहान की महत्ता को विषेश बताया जाता है। ये बरसाती स्थानिय नदी लगभग 1700 फुट की ऊॅंचाई से गिर कर चार कि.मी. की सरपट धारा तय करते हुये सोनभद्र नदी से मिलाप कर विलुप्त हो जाती है। वर्शा ऋतु में ये स्थान अति रमणिक और दार्षनिक हो जाता है।
नीचे तलहटी में पहॅंुचने पर ‘बौलिया’ नाम का एक स्थान है जहाॅं से किसी जमाने में पेयजल की आपूर्ती की जाती थी। यहाॅं उपलब्ध तालाबों की संख्याओं से पता चलता है कि यहाॅं के निवासियों के लिये साधारणतया जलापूर्ती तालाबों से ही की जाती थी। इस स्थान पर मुख्यतः दो गाॅंव हैं ‘वामन तालाब’ और ‘नागाटोली’। वामन तालाब में तीन बड़े तालाब मौजूद हैं जबकि नागाटोली में चार तालाब हैं। तत्कालीन मुखिया से बातचीत में यह ज्ञात हुआ कि यहाॅं सभी तालाबों को उनका निजी नाम दिया हुआ है भैंसहा तालाब, पक्कम तालाब, ककरहा ताल, सोनामुखी, चुनहट्टा, जौगा आदि।
1988.ई में गिरधारी उराॅंव नागाटोली के टांड़ पर खेत जोतते समय लगभग 50.ग्राम का स्वर्ण आभूशण मिला था। इसके अलावा वर्तमान में भी यहाॅं के खेतों में जोताई, मृदा कटाई अथवा खोदाई करने पर कई बार सिक्के, मूर्तियाॅं तथा कई घरेलू इस्तेमाल होने वाले सामान आदि मिलते रहे हैं जिन्हें ग्रामिण पुरातत्व विभाग को सौंप देते हैं। इन बातों से यह स्पश्ट होता है कि इस क्षेत्र के कई स्थानों पर कभी खुषहाल गाॅंव के गाॅंव बसे हुये थे, जो अब समतल खेत में तब्दिल हो गये हैं।
इसका अंत लिखते समय मन क्षुभ्ध एवं द्रवित हो रहा है कि आज के स्वतंत्र एवं अत्यधुनिक तकनीकि वाले आधुनिक भारत में भी इस सांस्कुतिक एवं गर्वान्वित करने वाली विरासत तथा यहाॅं उपलब्ध खंडहर हो रही इमारतें उपेक्षित एवं पराश्रित पड़ी हुई हैं जो अपनी कला, सौम्यता एवं इतिहास को अपनी सुदृढ़ता के साथ अपनी षान को बड़ी कठिनाइयों से बचाये हुये हैं।
यदि इस स्थान का उत्थान, मरम्मतिकरण और देख-रेख सरकार द्वारा पर्यटन केंद्र के रूप में हो जाये तो इससे न केवल सरकार को लाभ होगा बल्कि इससे जुड़े लोगों को रोजगार भी मिल जायेगा और यहाॅं आने वाले पर्यटक आगंतुकों के लिये भारत के मिटते हुये इतिहास को भी अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होगा।
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